इसे महज इत्तेफाक कहें, या शर्म की बात कि मातृभाषा अपने ही देश में वजूद खोती नजर आ रही है। आज ऐसा माहौल बन गया है कि जो हिंदी में बोलता है या जिसे अंग्रेजी नहीं आती, उसे लोग कम पढ़ा-लिखा समझते हैं या उसका मजाक उड़ाते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर लोग अपने बच्चों को हिंदी स्कूल भेजने की बजाय कॉन्वेंट भेजते हैं। गरीब से गरीब भी यही चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़े। कुछ लोग तो बड़े घमंड से कहते हैं कि मेरे बच्चे को हिंदी बहुत कम आती है, वह शुरू से अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा है।
इसे महज इत्तेफाक कहें, या शर्म की बात कि मातृभाषा अपने ही देश में वजूद खोती नजर आ रही है। आज ऐसा माहौल बन गया है कि जो हिंदी में बोलता है या जिसे अंग्रेजी नहीं आती, उसे लोग कम पढ़ा-लिखा समझते हैं या उसका मजाक उड़ाते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर लोग अपने बच्चों को हिंदी स्कूल भेजने की बजाय कॉन्वेंट भेजते हैं। गरीब से गरीब भी यही चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़े। कुछ लोग तो बड़े घमंड से कहते हैं कि मेरे बच्चे को हिंदी बहुत कम आती है, वह शुरू से अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा है। असल में, हिंदी को मिटाने में खुद हिंदी वाले जिम्मेदार हैं। आज वस्तु के नाम से लेकर सीवी बनाने और साक्षात्कार देने तक हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है। देखा जाए, तो हिंदी उस व्यक्ति की तरह है, जो अपने कंधे पर अंग्रेजी नाम के विकलांग को बैठाए हुए हैं, जिसे देखने में यह प्रतीत होता है कि अंग्रेजी ऊपर है और हिंदी नीचे। लेकिन असल में अंग्रेजी, हिंदी के सहारे है।
कफील अहमद फारूकी
नोएडा, उत्तर प्रदेश
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