माना जाता है मनुष्य व्यवहार के साथ भाषा हर क्षण बदलती है, क्योंकि यही बदलाव उसके जीवित होने का सबूत है। हिंदी भी दिनोंदिन बदल रही है, और बढ़ रही है। 2001 में ही देश की 42.2 करोड़ आबादी हिंदी बोल रही थी, जिसमें 2011 की जनगणना में इजाफा हुआ ही होगा। इसी तरह वैश्विक परिदृश्य में हिंदी सीखने वाले लोगों की संख्या भी पिछले आठ वर्षों में करीब 50 फीसदी बढ़ी है। आकलन यह भी है कि दुनिया की शीर्ष तीन भाषाओं में हिंदी शामिल है ! इन तमाम तस्वीरों के बाद भी इन दिनों हिंदी भाषाप्रेमी इस लोकप्रिय भाषा के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। आखिर क्यों? दरअसल, विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली ( सीबीसीएस ) ने अंतर-स्नातक में हिंदी को वैकल्पिक विषय बना दिया है।
माना जाता है मनुष्य व्यवहार के साथ भाषा हर क्षण बदलती है, क्योंकि यही बदलाव उसके जीवित होने का सबूत है। हिंदी भी दिनोंदिन बदल रही है, और बढ़ रही है। 2001 में ही देश की 42.2 करोड़ आबादी हिंदी बोल रही थी, जिसमें 2011 की जनगणना में इजाफा हुआ ही होगा। इसी तरह वैश्विक परिदृश्य में हिंदी सीखने वाले लोगों की संख्या भी पिछले आठ वर्षों में करीब 50 फीसदी बढ़ी है। आकलन यह भी है कि दुनिया की शीर्ष तीन भाषाओं में हिंदी शामिल है ! इन तमाम तस्वीरों के बाद भी इन दिनों हिंदी भाषाप्रेमी इस लोकप्रिय भाषा के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। आखिर क्यों? दरअसल, विकल्प आधारित क्रेडिट प्रणाली ( सीबीसीएस ) ने अंतर-स्नातक में हिंदी को वैकल्पिक विषय बना दिया है।
अब तक उत्तर भारत के तमाम केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनिवार्य विषय होने के कारण छात्रों के लिए इसे पढ़ना जरूरी था। मगर अब इसे पढ़ना 'मजबूरी' नहीं। आशंका यह है कि वैकल्पिक विषय होने के कारण अंग्रेजी या अन्य आधुनिक भाषाओं के प्रति ही छात्र ज्यादा आकर्षित होंगे। यह ठीक है कि बाजार में हिंदी का झंडा बुलंद है। साबून-शैंपू सहित मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी जैसे महंगे उत्पादों के विज्ञापन भी हिंदी में आने लगे हैं। बाहर हिंदी की पैठ और गहरी हुई है। लेकिन देश के भीतर एक भाषा के रूप में हिंदी मजबूत हुई है, यह नहीं कह सकते। ठेठ हिंदी प्रदेश के रूप में पहचाने जाने वाले उत्तर प्रदेश में आज भी स्कूली छात्र बड़ी संख्या में हिंदी में फेल होते हैं। रचनात्मकता के मोर्चे पर हिंदी पहले जैसी ऊर्वर है, यह जोर देकर नहीं कह सकते। ऐसे समय में हिंदी को वैकल्पिक विषय बनाना एक बड़ा खतरा उठाना है। दूसरी भाषाएं सीखना कितना भी जरूरी क्यों न हो, लेकिन हम अपनी भाषा को भगवान भरोसे नहीं छोड़ सकते। लिहाजा सवाल यह नहीं है कि अभी देश में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा ले रहे करीब दो करोड़ बच्चे भविष्य में हिंदी के प्रति कितना समर्पित होंगे। समझना यह भी है कि हिंदी की बुनियाद किस तरह मजबूत हो। विश्वविद्यालयों में हिंदी का आकर्षण बढ़ेगा, पर इसे अधिक से अधिक पठनीय तो बनाएं। इसकी गुणवत्ता तो सुधारें। क्या हुमें इसकी चिंता नहीं होनी चाहिए?
लेखक - हेमेन्द्र मिश्र
साभार - अमर उजाला, प्रसंगवश, पेज नं. 10, लखनऊ संस्करण । शनिवार । 20 जून 2015
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