आता जो याद बार-बार वो... देव आनंद 26 सितंबर 1923 को देव आनंद पैदा हुए थे। हिंदी सिनेमा के इस विलक्षण व्यक्तित्व को आज भी लोग दिल से याद करते हैं।
"26 सितंबर 1923 को देव आनंद पैदा हुए थे। उन्हें हमसे बिछड़े लगभग सात साल हो गए हैं, लेकिन हिंदी सिनेमा के इस विलक्षण व्यक्तित्व को आज भी लोग दिल से याद करते हैं। बार-बार उनकी फिल्में देखते हैं और कई बार उनकी नकल भी करते हैं। उनकी याद में खास-
अगर वे आज होते, तो नब्बे के क्लब के सदस्य होते। शायद व्हील चेयर पर बैठकर कांपते हाथ से अपने जन्मदिन का केक काटते, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वे चाहते भी नहीं थे। उन्हें 'नर्वस नाइंटी' वालों की बैठक में जाकर शतक तक पहुंचने के लिए लड़खड़ाते हुए बीमार आशा के सहारे जीने का शौक नहीं था। वे कर्मजीवी थे। हां, देव आनंद के लिए यही शब्द सही है। जिस उम्र में लोग रिटायर होकर नाती-पोतों के साथ दिन गुजारते हैं और अपने जमाने की याद में आज के जमाने को कोसते हैं, उस उम्र में देव नित नई फिल्म बनाने के बारे में सोचा करते थे। वे थकना नहीं जानते थे। एक फिल्म फ्लॉप हुई तो भुलाकर उसी उत्साह से दूसरी फिल्म की शूटिंग में व्यस्त हो जाते। जीना इसी का नाम है। उनका जीवन रोमांस में बीता। रोमांस अपनी जिंदगी से। इसीलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम 'रोमांसिंग विद लाइफ' रखा। यह भी संयोग है कि अट्ठासी अध्याय में अपनी जीवन लिखने वाला अट्ठासी वर्ष की उम्र में ही चला गया।
देव अपने समय के फैशन राजदूत थे। कमीज के बटन गले तक बंद, दुमंजिला जुल्फें, गले में तरह-तरह के स्कार्फ और सिर पर नये ढंग की कैप। वे ग्रेगरी पेक से प्रभावित तो थे, लेकिन उनकी खुद की भी अदा थी। उनका गर्दन हिलाना, टेढ़ा होकर चलना, हाथों का झटकना और आंखें मिचकाना अपने आप में अनोखी अदा थी। उनका टूटा हाथ मानों बुरी नजर से बचने के लगाया गया नैसर्गिक डिठौना था। वह अकेले ऐसे नायक रहे, जिन्होंने अपनी पहली फिल्म 'हम एक हैं' से लेकर अपनी अंतिम फिल्म 'मिस्टर प्राइम मिनिस्टर' तक नायक की ही भूमिका निभाई। बस, अपनी ही फिल्म 'यार का तराना' में वे नहीं थे। 'इंसानियत' में वे भले ही दिलीप कुमार के साथ हों, लेकिन फिल्मी फॉर्मूले के अनुसार चूंकि अंत में नायिका उन्हें मिलती है इसलिए वे इस फिल्म के नायक भी कहे जा सकते हैं। दिलीप कुमार अपनी पहली फिल्म 'ज्वार-भाटा' के नायक नहीं थे। फिल्मों में हमेशा सूट-बूट में नजर आने वाले देव अपनी शुरुआती फिल्मों में कुर्ता-पैजामा और कुर्ता-धोती में भी नजर आए थे। और तो और 'हम भी इंसान हैं' में वे समाज सुधारक की तरह धोती-कुर्ता-बंडी और टोपी में नजर आए थे। उन्हें अपने चेहरे पर दाढ़ी मूंछें कभी पसंद नहीं आईं। दाढ़ी उन्होंने 'इंसानियत' के बहुत अर्से बाद 'हम दोनों' में लगाई थी। जब उन्होंने 'गाइड' के अंतिम दृश्यों में दाढ़ी बढ़ाई थी, तो फिल्मी दुनिया में यह बात फैल गई थी कि बस अब देव आनंद खत्म। लेकिन जब तक है जान तब तक है काम मानने वाले देव खत्म नहीं हुए, बल्कि इसके बाद उन्होंने नई पारी खेली। निर्देशक की। देव को तेज चलना पसंद था। यही गुण उनके गानों में भी नजर आता था। उनके कई गाने चलते-फिरते ही फिल्माए गए हैं। पहली हिट फिल्म 'जिद्दी' में चलते हुए गाया गया गीत 'मरने की दुआएं क्यों मांगूं' से उन्हें लगा कि ऐसे गाने उन्हें हिट कर देंगे। फिर तो 'दुखी मन मेरे' (फंटूश), 'खोया खोया चांद' (काला बाजार), 'दिल का भंवर करे पुकार' (तेरे घर के सामने), 'जिया हो जिया' (जब प्यार किसी से होता है), 'ये दिल न होता बेचारा' (ज्वेल थीफ) में वे चलते-फिरते गाते रहे। अब ऐसा संभव नहीं हो पाया तो चलते-फिरते वाहन में ही गाना गाया। 'चाहे कोई खुश हो', 'देखो माने नहीं रूठी हसीना' (टैक्सी ड्राइवर), 'माना जनाब ने पुकारा नहीं (पेइंगगेस्ट), 'है अपना दिल तो अवारा' (सोलहवां साल), 'फूलों के रंग से' (प्रेम पुजारी), 'मैंने कसम ली' (तेरे मेरे सपने) में कभी कार में, तो कभी ट्रेन में, तो कभी साइकिल पर गाना गाया। जब अपने पर कोई गाना न मिला तो, 'ले के पहला-पहला प्यार' गाने में सहायक अभिनेता और अभिनेत्री के साथ चलते नजर आए। 'वॉक द टॉक' की तर्ज पर वे 'वॉक द सॉन्ग' किया करते थे। उन्होंने अपने समय में सबसे ज्यादा पार्श्व गायकों की आवाज ली। किशोर कुमार और मोहम्मद रफी तो थे ही, लेकिन मुकेश, तलत महमूद, हेमंत कुमार, मन्ना डे भी थे। इन गायकों की आवाज उन पर पूरी तरह फिट रही। जगमोहन बख्शी, जीएम दुर्रानी और चितलकर का भी प्लेबैक लिया। इन गायकों के न रहने के बाद उन्हें शायद पर्दे पर गाने में दिलचस्पी नहीं रही। उन पर फिल्माए गाने भी लोकप्रिय नहीं हुए। उन्हें खुद गाने की खुजली नहीं हुई। हां 'महल' में कुछ पंक्तियां बोलीं, गाईं नहीं। वे विज्ञापनों के फेर में भी नहीं पड़े। अपने खास दोस्त की कंपनी के लिए शूटिंग का एकमात्र विज्ञापन किया।
देव ने पता नहीं कौन सी बूटी खाई थी, जो उन्होंने उम्र को पछाड़ दिया था। जिन बच्चियों ने अपनी मां की गोद में बैठकर देव की फिल्में देखीं, वे दादी-नानी बन चुकी थी, लेकिन देव जवान बने रहे। दर्शकों के दांत टूट गए, लेकिन देव के चेहरे पर मुस्कान बनी रही। देव ने अपनी उम्र से आधी की नायिकाओं के साथ रोमांटिक भूमिकाएं कीं। उन्होंने कभी भी सिक्स पैक या एट पैक का तमाशा नहीं किया। न ही अपने शरीर पर टैटू करवाया। अपनी फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' के सबसे लोकप्रिय गीत 'दम मारो दम' के रीमिक्स पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान तो अपनी फिल्म पर था। वैसे भी वे किसी विवाद में नहीं पड़ते थे।
यह कहना मुश्किल था कि वे सिर्फ भारत में ही लोकप्रिय थे या विदेशों में भी। नेपाल, भूटान और सिक्किम में वे सबसे लोकप्रिय भारतीय अभिनेता थे। देव अपने चाहने वालों के सदा जिंदा रहना चाहते थे। और इस बात में कोई शक नहीं कि जब तक सिनेमा की दुनिया रहेगी, देव आनंद हमारे बीच रहेंगे। मुस्कुराते हुए, गाते और गुनगुनाते हुए- "मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।"
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चित्र साभार : जागरण जंक्शन |
देव अपने समय के फैशन राजदूत थे। कमीज के बटन गले तक बंद, दुमंजिला जुल्फें, गले में तरह-तरह के स्कार्फ और सिर पर नये ढंग की कैप। वे ग्रेगरी पेक से प्रभावित तो थे, लेकिन उनकी खुद की भी अदा थी। उनका गर्दन हिलाना, टेढ़ा होकर चलना, हाथों का झटकना और आंखें मिचकाना अपने आप में अनोखी अदा थी। उनका टूटा हाथ मानों बुरी नजर से बचने के लगाया गया नैसर्गिक डिठौना था। वह अकेले ऐसे नायक रहे, जिन्होंने अपनी पहली फिल्म 'हम एक हैं' से लेकर अपनी अंतिम फिल्म 'मिस्टर प्राइम मिनिस्टर' तक नायक की ही भूमिका निभाई। बस, अपनी ही फिल्म 'यार का तराना' में वे नहीं थे। 'इंसानियत' में वे भले ही दिलीप कुमार के साथ हों, लेकिन फिल्मी फॉर्मूले के अनुसार चूंकि अंत में नायिका उन्हें मिलती है इसलिए वे इस फिल्म के नायक भी कहे जा सकते हैं। दिलीप कुमार अपनी पहली फिल्म 'ज्वार-भाटा' के नायक नहीं थे। फिल्मों में हमेशा सूट-बूट में नजर आने वाले देव अपनी शुरुआती फिल्मों में कुर्ता-पैजामा और कुर्ता-धोती में भी नजर आए थे। और तो और 'हम भी इंसान हैं' में वे समाज सुधारक की तरह धोती-कुर्ता-बंडी और टोपी में नजर आए थे। उन्हें अपने चेहरे पर दाढ़ी मूंछें कभी पसंद नहीं आईं। दाढ़ी उन्होंने 'इंसानियत' के बहुत अर्से बाद 'हम दोनों' में लगाई थी। जब उन्होंने 'गाइड' के अंतिम दृश्यों में दाढ़ी बढ़ाई थी, तो फिल्मी दुनिया में यह बात फैल गई थी कि बस अब देव आनंद खत्म। लेकिन जब तक है जान तब तक है काम मानने वाले देव खत्म नहीं हुए, बल्कि इसके बाद उन्होंने नई पारी खेली। निर्देशक की। देव को तेज चलना पसंद था। यही गुण उनके गानों में भी नजर आता था। उनके कई गाने चलते-फिरते ही फिल्माए गए हैं। पहली हिट फिल्म 'जिद्दी' में चलते हुए गाया गया गीत 'मरने की दुआएं क्यों मांगूं' से उन्हें लगा कि ऐसे गाने उन्हें हिट कर देंगे। फिर तो 'दुखी मन मेरे' (फंटूश), 'खोया खोया चांद' (काला बाजार), 'दिल का भंवर करे पुकार' (तेरे घर के सामने), 'जिया हो जिया' (जब प्यार किसी से होता है), 'ये दिल न होता बेचारा' (ज्वेल थीफ) में वे चलते-फिरते गाते रहे। अब ऐसा संभव नहीं हो पाया तो चलते-फिरते वाहन में ही गाना गाया। 'चाहे कोई खुश हो', 'देखो माने नहीं रूठी हसीना' (टैक्सी ड्राइवर), 'माना जनाब ने पुकारा नहीं (पेइंगगेस्ट), 'है अपना दिल तो अवारा' (सोलहवां साल), 'फूलों के रंग से' (प्रेम पुजारी), 'मैंने कसम ली' (तेरे मेरे सपने) में कभी कार में, तो कभी ट्रेन में, तो कभी साइकिल पर गाना गाया। जब अपने पर कोई गाना न मिला तो, 'ले के पहला-पहला प्यार' गाने में सहायक अभिनेता और अभिनेत्री के साथ चलते नजर आए। 'वॉक द टॉक' की तर्ज पर वे 'वॉक द सॉन्ग' किया करते थे। उन्होंने अपने समय में सबसे ज्यादा पार्श्व गायकों की आवाज ली। किशोर कुमार और मोहम्मद रफी तो थे ही, लेकिन मुकेश, तलत महमूद, हेमंत कुमार, मन्ना डे भी थे। इन गायकों की आवाज उन पर पूरी तरह फिट रही। जगमोहन बख्शी, जीएम दुर्रानी और चितलकर का भी प्लेबैक लिया। इन गायकों के न रहने के बाद उन्हें शायद पर्दे पर गाने में दिलचस्पी नहीं रही। उन पर फिल्माए गाने भी लोकप्रिय नहीं हुए। उन्हें खुद गाने की खुजली नहीं हुई। हां 'महल' में कुछ पंक्तियां बोलीं, गाईं नहीं। वे विज्ञापनों के फेर में भी नहीं पड़े। अपने खास दोस्त की कंपनी के लिए शूटिंग का एकमात्र विज्ञापन किया।
देव ने पता नहीं कौन सी बूटी खाई थी, जो उन्होंने उम्र को पछाड़ दिया था। जिन बच्चियों ने अपनी मां की गोद में बैठकर देव की फिल्में देखीं, वे दादी-नानी बन चुकी थी, लेकिन देव जवान बने रहे। दर्शकों के दांत टूट गए, लेकिन देव के चेहरे पर मुस्कान बनी रही। देव ने अपनी उम्र से आधी की नायिकाओं के साथ रोमांटिक भूमिकाएं कीं। उन्होंने कभी भी सिक्स पैक या एट पैक का तमाशा नहीं किया। न ही अपने शरीर पर टैटू करवाया। अपनी फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' के सबसे लोकप्रिय गीत 'दम मारो दम' के रीमिक्स पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान तो अपनी फिल्म पर था। वैसे भी वे किसी विवाद में नहीं पड़ते थे।
यह कहना मुश्किल था कि वे सिर्फ भारत में ही लोकप्रिय थे या विदेशों में भी। नेपाल, भूटान और सिक्किम में वे सबसे लोकप्रिय भारतीय अभिनेता थे। देव अपने चाहने वालों के सदा जिंदा रहना चाहते थे। और इस बात में कोई शक नहीं कि जब तक सिनेमा की दुनिया रहेगी, देव आनंद हमारे बीच रहेंगे। मुस्कुराते हुए, गाते और गुनगुनाते हुए- "मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।"
-दिलीप गुप्ते
साभार : अमर उजाला | शब्दिता | यादें | पेज संख्या 15 | 21 सितंबर 2014
यह पोस्ट आज की बुलेटिन श्रद्धांजलि - जसदेव सिंह जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल है।
जवाब देंहटाएंसदाबहार के पर्याय
जवाब देंहटाएंमहान कलाकार देवानंद को भावपूर्ण श्रद्धांजलि ! रोचक पोस्ट
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 29 सितम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंnice info
जवाब देंहटाएंजयपुर के राजा जयसिंह ने वैसे तो इस शहर में कई ऐतिहासिक इमारतें बनवाई. लेकिन इन सब में जंतर मंतर सबसे खास रहा. इस वेधशाला को अंतरिक्ष और समय के बारे में जानकारी इक्ट्टठे करने के लिए यूज किया जाता था. ये जगह आज भी अपने आर्कटेक्चर और पांपरिक विरासत के लिए मशहूर है. जतंर मंतर के पास में ही जयपुर का फेमस सिटी पैलेस है जहां राजा रजवाडो़ं की पोशाक, हाथी दांत, हथियारों से लेकर कई रॉयल वस्तुएं देखने को मिलती है. https://hs.news/jaipurs-top-7-tourist-place/
जवाब देंहटाएंRation Card
जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छा लेखा लिखा है, जिसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
अति सुंदर लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा Free Song Lyrics
जवाब देंहटाएंNice Post
जवाब देंहटाएं9xMovies
एक से बढ़कर एक जानकारी का संग्रह किया है, थैंक्स देता हूँ आपको इसके लिए और भविष्य की शुभकामनाये भी|
जवाब देंहटाएंTodaynewsmint